Judicial Activism vs Judicial Restraint

न्यायिक सक्रियता बनाम न्यायिक संयम: (Judicial Activism vs Judicial Restraint)
भारतीय संविधान में न्यायपालिका की भूमिका का समालोचनात्मक अध्ययन

लेखक: शोधार्थी (LL.M.) | विषय: संवैधानिक न्यायशास्त्र


1. भूमिका और शोध की आवश्यकता

भारतीय संविधान के तीन स्तंभ — विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका — मिलकर एक संतुलित लोकतांत्रिक व्यवस्था को संचालित करते हैं। इन तीनों के बीच शक्तियों का पृथक्करण न केवल संवैधानिक आदर्श है, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा भी है। परंतु जब न्यायपालिका नीतिगत निर्णयों में हस्तक्षेप करती है, तब यह प्रश्न उठता है कि क्या वह न्यायिक सक्रियता दिखा रही है या वह न्यायिक संयम का पालन कर रही है?

इस शोध लेख में न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism) और न्यायिक संयम (Judicial Restraint) के बीच की रेखा, उनका भारतीय संदर्भ, ऐतिहासिक विकास, प्रमुख निर्णय, तुलनात्मक अध्ययन और संवैधानिक प्रभावों का विस्तार से विश्लेषण किया गया है।

2. न्यायिक सक्रियता: परिभाषा और तत्व

न्यायिक सक्रियता वह सिद्धांत है जिसमें न्यायालय अपने न्यायिक अधिकार क्षेत्र से आगे बढ़ते हुए, सार्वजनिक हितों की रक्षा हेतु विधायिका और कार्यपालिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप करता है।

प्रमुख तत्व:

  • संविधान की व्यापक व्याख्या (expansive interpretation)
  • न्यायालय द्वारा नीतिगत निर्देश (judicial legislation)
  • जनहित याचिका (PIL) का उपयोग
  • कार्यपालिका की निष्क्रियता में न्यायिक हस्तक्षेप

3. न्यायिक संयम: परिभाषा और सिद्धांत

न्यायिक संयम वह स्थिति है जहाँ न्यायालय संविधान की सीमाओं के भीतर रहकर निर्णय देता है, और विधायिका/कार्यपालिका के कार्यों में न्यूनतम हस्तक्षेप करता है।

मुख्य विशेषताएँ:

  • मूलतः न्यायिक विरक्तता (judicial deference)
  • लोकतंत्र में बहुमत द्वारा चुनी सरकारों को प्राथमिकता
  • विधायिका को नीति निर्धारण में स्वायत्तता
  • अति सक्रियता से बचाव

4. भारतीय संदर्भ में विकास

भारतीय न्यायपालिका ने 1970 के दशक में न्यायिक संयम से न्यायिक सक्रियता की ओर संक्रमण किया, विशेषकर आपातकाल के पश्चात। ‘हुसैन आरा खातून बनाम बिहार राज्य (1979)’, ‘मनुभाई शाह बनाम गुजरात राज्य’, और ‘MC Mehta बनाम भारत संघ’ जैसे फैसलों ने इस प्रवृत्ति को स्थापित किया।

5. न्यायिक सक्रियता के ऐतिहासिक निर्णय

  • गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967): संसद मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती।
  • केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973): संविधान के मूल ढांचे की अवधारणा।
  • मनका गांधी बनाम भारत संघ (1978): अनुच्छेद 21 की व्याख्या में क्रांतिकारी परिवर्तन।
  • ऑल इंडिया जजेस केस (1993): कोलेजियम प्रणाली की स्थापना।
  • विषक न्याय बनाम भारत संघ (1997): यौन उत्पीड़न पर दिशा-निर्देश — विशाखा गाइडलाइंस।
  • MC Mehta मामले: पर्यावरण न्यायशास्त्र में क्रांतिकारी हस्तक्षेप।

6. संविधान सभा की दृष्टि

संविधान सभा में डॉ. अंबेडकर ने न्यायपालिका को 'संविधान का संरक्षक' कहा परंतु यह भी स्पष्ट किया कि न्यायपालिका को लोकतांत्रिक ढांचे में संतुलन बनाए रखना चाहिए। उन्होंने न्यायिक संयम को सर्वोपरि माना।

7. न्यायिक संयम के पक्ष में तर्क

  • लोकतंत्र में नीति निर्धारण जनता द्वारा निर्वाचित सरकार का अधिकार होना चाहिए।
  • न्यायपालिका की अति सक्रियता शक्ति पृथक्करण सिद्धांत के विरुद्ध है।
  • अहस्तक्षेप के सिद्धांत (doctrine of non-intervention) को मान्यता।
  • न्यायिक अतिरेक से संस्थागत टकराव की संभावना।

8. न्यायिक सक्रियता का लोकतंत्र पर प्रभाव

सकारात्मक पक्ष:

  • वंचित वर्गों को न्याय
  • जनहित याचिका के माध्यम से शासन की पारदर्शिता
  • पर्यावरण और शिक्षा अधिकार जैसे विषयों पर ऐतिहासिक हस्तक्षेप

नकारात्मक पक्ष:

  • कार्यपालिका और विधायिका की शक्तियों का अतिक्रमण
  • अधिनायकवादी न्यायपालिका का भय
  • लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व में असंतुलन

9. तुलनात्मक दृष्टिकोण

अमेरिका:

  • मार्बरी बनाम मैडिसन (1803): न्यायिक पुनरावलोकन की शुरुआत
  • ब्राउन बनाम बोर्ड ऑफ एजुकेशन (1954): नस्लीय भेदभाव पर न्यायिक हस्तक्षेप

यूके:

विधायिका सर्वोच्च है, न्यायिक सक्रियता सीमित। न्यायालय ‘Rule of Law’ तक सीमित रहता है।

भारत:

संविधान के अनुच्छेद 32, 226 द्वारा न्यायिक समीक्षा और सक्रियता को संवैधानिक आधार प्राप्त है।

10. वर्तमान प्रवृत्तियाँ और आलोचना

हाल के वर्षों में सुप्रीम कोर्ट ने कई बार न्यायिक संयम दिखाया है जैसे:

  • राम मंदिर निर्णय में 'द्वैत संतुलन'
  • कृषि कानूनों पर रोक के दौरान सावधानीपूर्वक हस्तक्षेप
  • अयोध्या, सबरीमाला, अनुच्छेद 370 जैसे मामलों में विविध दृष्टिकोण

11. न्यायिक सक्रियता बनाम संयम: संतुलन की आवश्यकता

संविधान के संरक्षक होने के नाते न्यायपालिका को वह भूमिका निभानी चाहिए जो न तो अधिनायकवादी हो और न ही निष्क्रिय। न्यायिक सक्रियता और संयम के बीच संतुलन ही लोकतंत्र को स्थिरता और न्यायसंगतता प्रदान करता है।

12. निष्कर्ष

न्यायिक सक्रियता और न्यायिक संयम भारतीय संविधान के दो आवश्यक स्तंभ हैं। जहाँ एक ओर न्यायपालिका को संविधान की रक्षा हेतु कठोर निर्णय लेने होते हैं, वहीं उसे लोकतंत्र की आत्मा — शक्ति पृथक्करण और जनप्रतिनिधि उत्तरदायित्व — का सम्मान भी करना होता है। यह संतुलन ही भारत जैसे विविधतापूर्ण लोकतंत्र में स्थिरता ला सकता है।

अतः आवश्यकता है एक संतुलित और उत्तरदायी न्यायपालिका की — जो समय के अनुसार सक्रिय हो, परंतु आवश्यकता से अधिक हस्तक्षेप से स्वयं को विरत रखे।


अस्वीकरण: यह लेख शैक्षणिक उद्देश्य हेतु है। कृपया विधिक सलाह हेतु अधिवक्ता से संपर्क करें।

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