जमानत (Bail) क्या है और यह कितने प्रकार की होती है? जानें नए कानूनों के साथ
कानूनी प्रक्रिया में "जमानत" या "Bail" एक बहुत ही महत्वपूर्ण शब्द है। इसका मतलब यह है कि पुलिस जब कभी हमें किसी गैर-जमानती (Non-Bailable) अपराध के लिए गिरफ्तार करती है या करने वाली होती है, तो हम अदालत में आवेदन दायर करके अपनी बेल करवाते हैं, ताकि केस की सुनवाई (Trial) चलने तक हमें जेल में ना रहना पड़े।
लेकिन जमानत केवल एक प्रकार की नहीं होती। आज हम यह जानेंगे कि जमानत कुल कितने प्रकार की होती है और इसके अलग-अलग प्रकारों के बारे में क्या कानूनी प्रावधान हैं।
जमानत के मुख्य प्रकार (Types of Bail)
आपराधिक प्रक्रिया में जमानत मूल रूप से चार प्रकार की होती है:
- रेगुलर बेल (Regular Bail)
- डिफ़ॉल्ट बेल (Default Bail)
- एंटीसिपेटरी बेल (Anticipatory Bail) / अग्रिम जमानत
- अंतरिम बेल (Interim Bail)
अब हम एक-एक करके इन्हें विस्तार से समझने की कोशिश करते हैं।
1. रेगुलर बेल (Regular Bail)
यह तो आप जानते ही हैं कि किसी भी मामले में पुलिस जब किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करती है तो 24 घंटे के भीतर उसे निकटतम मजिस्ट्रेट के सामने पेश करना जरूरी होता है। किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने के बाद जब पहली बार उसे मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाता है, उसके बाद कभी भी रेगुलर बेल के लिए आवेदन दायर किया जा सकता है।
यहाँ पर यह महत्वपूर्ण है कि अगर बेल आवेदन मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाता है तो सीआरपीसी (CrPC) की धारा 437 लागू होगी, और अगर आवेदन सेशन कोर्ट या हाई कोर्ट में पेश किया जाना है तो सीआरपीसी की धारा 439 लागू होगी।
संक्षेप में कह सकते हैं कि जब किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी के बाद मजिस्ट्रेट कोर्ट में धारा 437 के तहत या सेशन कोर्ट/हाई कोर्ट में धारा 439 के तहत आवेदन दायर करके जमानत प्राप्त की जाती है, तो उसे रेगुलर बेल कहते हैं। यह बेल प्रायः केस की सुनवाई चलने तक के लिए होती है।
पुराने कानून (CRPC) की धारा 437 और 439 के प्रावधान अब नए भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023 की क्रमशः धारा 480 और 482 में दिए गए हैं।
2. डिफ़ॉल्ट बेल / वैधानिक जमानत (Default Bail)
पुलिस किसी मामले में FIR होने के बाद कितने समय में अपनी जांच रिपोर्ट (चार्जशीट) पेश करेगी, इसके बारे में कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है। लेकिन सीआरपीसी की धारा 167 में यह प्रावधान जरूर किया गया है कि अगर पुलिस ने किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया है और अपराध ऐसा है जिसमें 10 साल या उससे ज्यादा की सजा का प्रावधान है, तो अगर गिरफ्तारी से 90 दिन तक पुलिस चार्जशीट फाइल नहीं करती, तो ऐसे गिरफ्तार किए हुए व्यक्ति को बेल पर छोड़े जाने का अधिकार मिल जाएगा।
इसी तरह, यदि FIR किसी ऐसे अपराध के बारे में है जिसके लिए 10 साल से कम की सजा का प्रावधान है, और किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किए हुए 60 दिन से ज्यादा का समय हो चुका है और पुलिस चार्जशीट फाइल नहीं कर पाती, तो ऐसे गिरफ्तार किए हुए व्यक्ति को भी बेल पर छोड़े जाने का अधिकार मिल जाता है।
इसको डिफ़ॉल्ट बेल कहते हैं, क्योंकि यह माना जाता है कि अगर पुलिस एक निश्चित समय में चार्जशीट फाइल नहीं कर पाती तो गिरफ्तार किए हुए व्यक्ति को एक सीमा से ज्यादा हिरासत में नहीं रखा जा सकता है। ऐसी स्थिति में गिरफ्तार किए हुए व्यक्ति को जमानत अधिकारपूर्वक मिलती है, मतलब कि जमानत की अर्जी दायर किए जाने पर मजिस्ट्रेट का कोई विवेकाधिकार (Discretion) नहीं होता, बल्कि उसको केवल यह देखना होता है कि अपराध किन धाराओं के अंतर्गत है और गिरफ्तार किए हुए कितना समय हो चुका है। अगर 60 दिन या 90 दिन वाली शर्त पूरी होती है, तो मजिस्ट्रेट को बेल देनी ही होगी।
इस बेल के लिए यह ध्यान रखने लायक बात है कि गिरफ्तारी के 60 या 90 दिन बाद बेल अपने आप नहीं होती, बल्कि उसके लिए आवेदन दायर करना जरूरी होता है। अगर आवेदन दायर करने के पहले चार्जशीट फाइल कर दी जाए, तो फिर ऐसा गिरफ्तार किया हुआ व्यक्ति डिफ़ॉल्ट बेल का अधिकारी नहीं रह जाएगा, उसे रेगुलर बेल के लिए ही प्रयास करना पड़ेगा।
डिफ़ॉल्ट बेल से संबंधित प्रावधान जो पुराने कानून (CRPC) की धारा 167 में थे, वे अब नए भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023 की धारा 187 में शामिल किए गए हैं।
3. एंटीसिपेटरी बेल / अग्रिम जमानत (Anticipatory Bail)
इसके नाम से ही स्पष्ट हो जाता है कि अगर आपको किसी मामले में अपनी गिरफ्तारी की आशंका (Anticipation) है, तो आप सेशन कोर्ट में या हाई कोर्ट में अपनी एंटीसिपेटरी बेल के लिए आवेदन कर सकते हो। इसको अग्रिम जमानत भी कहते हैं, जिसके लिए प्रावधान सीआरपीसी की धारा 438 में किए गए हैं।
काफी लोग पूछते हैं कि इसके लिए FIR होनी जरूरी है क्या? तो इस बारे में सीआरपीसी में कुछ लिखा तो नहीं है, लेकिन जब तक FIR नहीं होगी, तब तक आशंका के लिए आधार कैसे होगा? इसलिए यह मानकर चलिए कि FIR के बाद ही यह आवेदन दायर करना चाहिए, नहीं तो कोर्ट इसे समय-पूर्व (Pre-mature) मानकर खारिज कर सकता है।
एंटीसिपेटरी बेल के लिए आवेदन करते समय कोर्ट को कुछ जरूरी बिंदुओं पर संतुष्ट करना जरूरी है, जैसे:
- सबसे पहले तो यह कि उस अपराध में आपकी कोई भूमिका नहीं है।
- कोई स्वास्थ्य समस्या (Health Issues) या उम्र का कारक (Age Factor) भी हो सकता है, कि उन परिस्थितियों में अगर आपको गिरफ्तार किया जाता है तो आपको जान का खतरा हो जाएगा।
सन 2018 के पहले किसी भी अपराध की FIR होने पर एंटीसिपेटरी बेल के लिए आवेदन किया जा सकता था, लेकिन 2018 में इस धारा में संशोधन करके बलात्कार जैसे गंभीर अपराधों को एंटीसिपेटरी बेल के दायरे से बाहर कर दिया गया है।
इसके अलावा, कुछ साल पहले सुभाष काशीनाथ महाजन बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्रा के केस में, एससी/एसटी एक्ट के बारे में एंटीसिपेटरी बेल पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि एससी/एसटी एक्ट से जुड़े मामलों पर भी एंटीसिपेटरी बेल के प्रावधान लागू होंगे। जिसके बाद देश में काफी हंगामा हुआ, तो सरकार को एससी/एसटी एक्ट में धारा 18A जोड़नी पड़ी। इस धारा को जोड़कर एससी/एसटी एक्ट पर एंटीसिपेटरी बेल की प्रयोज्यता (Applicability) को खत्म कर दिया गया है। यानी अब एससी/एसटी एक्ट के अपराध में अग्रिम जमानत नहीं ली जा सकती।
अग्रिम जमानत का प्रावधान, जो पुराने कानून (CRPC) की धारा 438 में था, अब नए भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023 की धारा 484 में दिया गया है। इसके मूल सिद्धांतों और अपवादों को काफी हद तक बरकरार रखा गया है।
4. अंतरिम बेल (Interim Bail)
जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है कि इसका स्वभाव अस्थायी (Temporary) होता है। एक और रोचक बात यह है कि सीआरपीसी में अंतरिम बेल के लिए कोई विशेष धारा नहीं है। यह अदालत के विवेक पर निर्भर करती है।
आमतौर पर यह तब दी जाती है जब रेगुलर बेल या एंटीसिपेटरी बेल के लिए आवेदन किया जाता है, जिस पर या तो कोर्ट तुरंत सुनवाई नहीं कर पाता या फिर कोर्ट गिरफ्तारी की आशंका का ऐसा आधार पूछता है, जिस पर आवेदक को कुछ समय की जरूरत हो। तो उस समय कोर्ट से अनुरोध किया जा सकता है कि आगामी तारीख पेशी तक या एक निश्चित समय, जैसे दो सप्ताह या चार सप्ताह तक के लिए, गिरफ्तारी को रोका जाए। तो कोर्ट को उचित लगने पर, वह कुछ निश्चित समय तक के लिए बेल दे देता है। इसको ही अंतरिम बेल कहते हैं।
जिस तरह पुराने कानून में अंतरिम बेल के लिए कोई अलग धारा नहीं थी, उसी तरह नए भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) में भी इसके लिए कोई विशिष्ट धारा नहीं है। यह अभी भी अदालतों की अंतर्निहित शक्तियों (Inherent Powers) के तहत, मुख्य रूप से धारा 482 (रेगुलर बेल) या धारा 484 (अग्रिम जमानत) की सुनवाई के दौरान दिया जाने वाला एक अस्थायी आदेश है।
निष्कर्ष
जमानत एक व्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को सुरक्षित रखने का एक महत्वपूर्ण कानूनी उपकरण है, जब तक कि वह दोषी साबित न हो जाए। रेगुलर, डिफ़ॉल्ट, एंटीसिपेटरी और अंतरिम बेल के अलग-अलग प्रावधान यह सुनिश्चित करते हैं कि विभिन्न परिस्थितियों में न्याय और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के बीच संतुलन बना रहे। इन प्रकारों को समझना हर नागरिक के लिए आवश्यक है ताकि वे अपने अधिकारों की रक्षा कर सकें।
Disclaimer
यह पोस्ट केवल सामान्य या एजुकेशनल पर्पस के लिए है। इसमें दिए गए तथ्यों का लेखक सपोर्ट नहीं करता है। किसी भी कानूनी मामले में सलाह के लिए कृपया एक योग्य कानूनी पेशेवर से संपर्क करें।