Hindu marriage act 1955 all section and proceedings

हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 – संपूर्ण गाइड: धाराएं, प्रक्रिया, और ऐतिहासिक निर्णय (Hindu marriage act 1955 all section and proceedings )

हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA)

एक संपूर्ण और गहन विश्लेषण

अधिनियम का दायरा: यह कानून हिंदुओं, बौद्धों, जैनियों और सिखों पर लागू होता है। यह विवाह की शर्तों, वैवाहिक उपचारों (जैसे तलाक, न्यायिक पृथक्करण) और संबंधित प्रक्रियाओं को नियंत्रित करता है।
प्रारंभिक (धारा 1-4)
  • धारा 1-4: संक्षिप्त नाम, लागू होना और परिभाषाएं
    यह अधिनियम का दायरा और 'हिंदू' शब्द की व्यापक परिभाषा निर्धारित करता है।
हिन्दू विवाह (धारा 5-8)
  • धारा 5: एक वैध हिन्दू विवाह के लिए शर्तें
    यह एक वैध विवाह के लिए पांच अनिवार्य शर्तें बताता है:
    (i) एकपत्नीत्व (Monogamy): विवाह के समय किसी भी पक्ष का कोई जीवित पति या पत्नी नहीं होना चाहिए।
    (ii) मानसिक स्वस्थता: कोई भी पक्ष मानसिक अस्वस्थता के कारण सहमति देने में असमर्थ न हो।
    (iii) आयु: वर की आयु 21 वर्ष और वधू की 18 वर्ष पूरी हो। (अब लड़कियों के लिए भी 21 वर्ष प्रस्तावित है)।
    (iv) प्रतिषिद्ध डिग्री (Prohibited Degrees): पक्ष एक दूसरे के प्रतिषिद्ध संबंधों की डिग्री में नहीं आने चाहिए।
    (v) सपिंड संबंध (Sapinda Relationship): पक्ष एक दूसरे के सपिंड नहीं होने चाहिए, जब तक कि प्रथा अनुमति न दे।
  • धारा 7: हिन्दू विवाह के लिए कर्म (Ceremonies)
    विवाह के लिए पक्षकारों के पारंपरिक संस्कार और समारोह आवश्यक हैं। जहाँ 'सप्तपदी' (सात फेरे) की प्रथा है, वहां सातवें पद के साथ विवाह पूर्ण और बाध्यकारी हो जाता है।
    प्रमुख केस: एस. नागालिंगम बनाम सिवागामी (2001) - सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब तक आवश्यक समारोह पूरे नहीं होते, तब तक कोई वैध विवाह नहीं होता।
  • धारा 8: हिन्दू विवाहों का रजिस्ट्रीकरण
    यह विवाह के पंजीकरण का प्रावधान करता है। पंजीकरण विवाह का निश्चायक सबूत है, लेकिन पंजीकरण न होने से विवाह अवैध नहीं हो जाता।
वैवाहिक अधिकारों का पुनर्स्थापन और न्यायिक पृथक्करण (धारा 9-10)
  • धारा 9: दाम्पत्य अधिकारों का पुनर्स्थापन (Restitution of Conjugal Rights - RCR)
    यदि पति या पत्नी में से कोई भी बिना किसी उचित कारण के दूसरे का साथ छोड़ देता है, तो पीड़ित पक्ष RCR के लिए याचिका दायर कर सकता है ताकि न्यायालय दूसरे पक्ष को साथ रहने का निर्देश दे।
    प्रमुख केस: सरोज रानी बनाम सुदर्शन कुमार चड्ढा (1984) - सुप्रीम कोर्ट ने धारा 9 की संवैधानिकता को यह कहते हुए बरकरार रखा कि इसका उद्देश्य विवाह को बचाना है, न कि किसी पर जबरदस्ती करना।
  • धारा 10: न्यायिक पृथक्करण (Judicial Separation)
    यह तलाक का एक विकल्प है। इसमें पक्षकार कानूनी रूप से विवाहित रहते हैं, लेकिन उन्हें एक-दूसरे के साथ रहने की कोई बाध्यता नहीं होती। इसके आधार वही हैं जो तलाक के लिए धारा 13 में दिए गए हैं।
विवाह की अमान्यता और विवाह-विच्छेद (तलाक) (धारा 11-13B)
  • धारा 11: शून्य विवाह (Void Marriages)
    यदि विवाह धारा 5 की शर्तों (i), (iv), या (v) का उल्लंघन करता है (यानी द्विविवाह, प्रतिषिद्ध डिग्री, या सपिंड संबंध), तो वह प्रारंभ से ही शून्य (void ab initio) होता है।
  • धारा 12: शून्यकरणीय विवाह (Voidable Marriages)
    इन विवाहों को पीड़ित पक्ष की याचिका पर न्यायालय द्वारा रद्द किया जा सकता है। इसके आधार हैं: (a) नपुंसकता के कारण विवाह का संपन्न न होना, (b) धारा 5(ii) का उल्लंघन, (c) बल या कपट द्वारा सहमति, (d) विवाह के समय पत्नी का किसी और से गर्भवती होना।
  • धारा 13: विवाह-विच्छेद (Divorce)
    यह तलाक के आधारों को सूचीबद्ध करता है, जिनमें प्रमुख हैं: (i) व्यभिचार (Adultery), (ia) क्रूरता (Cruelty), (ib) परित्याग (Desertion) (2 वर्ष), (ii) धर्मांतरण, (iii) मानसिक विकार, (v) कुष्ठ रोग, (vii) सात साल से लापता होना।
    प्रमुख केस (क्रूरता पर): एन.जी. दस्ताने बनाम एस. दस्ताने (1975) - इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 'मानसिक क्रूरता' की अवधारणा को विस्तृत रूप से समझाया।
  • धारा 13B: पारस्परिक सहमति से विवाह-विच्छेद (Divorce by Mutual Consent)
    यह सबसे तेज तरीका है। पक्षकारों को यह साबित करना होता है कि वे एक वर्ष या उससे अधिक समय से अलग रह रहे हैं। याचिका दाखिल करने के 6 से 18 महीने के बाद दूसरा प्रस्ताव देना होता है, जिसके बाद न्यायालय तलाक की डिक्री पारित करता है।
    प्रमुख केस: अमरदीप सिंह बनाम हरवीन कौर (2017) - सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि विवाह के बचने की कोई संभावना नहीं है, तो विशेष परिस्थितियों में 6 महीने की अनिवार्य प्रतीक्षा अवधि को माफ किया जा सकता है।
भरण-पोषण, अभिरक्षा और प्रक्रिया (धारा 14-28)
  • धारा 24: वादकालीन भरण-पोषण और कार्यवाहियों के व्यय (Maintenance Pendente Lite)
    मामला चलने के दौरान, न्यायालय पति या पत्नी (जो भी आर्थिक रूप से कमजोर हो) को दूसरे पक्ष से मासिक रखरखाव और मुकदमे का खर्च दिलाने का आदेश दे सकता है।
  • धारा 25: स्थायी निर्वाहिका और भरण-पोषण (Permanent Alimony and Maintenance)
    तलाक या न्यायिक पृथक्करण की डिक्री के समय, न्यायालय एक पक्ष को दूसरे पक्ष द्वारा मासिक या एकमुश्त भरण-पोषण देने का आदेश दे सकता है।
  • धारा 26: अपत्यों की अभिरक्षा (Custody of Children)
    न्यायालय बच्चों के सर्वोत्तम हित को ध्यान में रखते हुए उनकी अभिरक्षा, भरण-पोषण और शिक्षा के संबंध में आदेश पारित कर सकता है।
  • धारा 27: संपत्ति का व्ययन (Disposal of Property)
    न्यायालय विवाह के समय भेंट की गई संयुक्त संपत्ति और स्त्रीधन के संबंध में आदेश दे सकता है।
संपूर्ण न्यायिक प्रक्रिया (केस शुरू होने से आदेश तक)
  • चरण 1: याचिका दाखिल करना (Petition Filing)
    पीड़ित पक्ष एक वकील के माध्यम से परिवार न्यायालय या जिला न्यायालय में एक याचिका दायर करता है। याचिका में राहत मांगने के सभी आधारों और तथ्यों का उल्लेख होता है।
  • चरण 2: समन जारी करना
    न्यायालय दूसरे पक्ष (प्रतिवादी) को नोटिस/समन भेजता है, जिसमें उसे एक निश्चित तारीख पर न्यायालय में उपस्थित होने के लिए कहा जाता है।
  • चरण 3: प्रतिवादी की उपस्थिति और जवाब
    प्रतिवादी न्यायालय में उपस्थित होकर अपना लिखित जवाब (Written Statement) दाखिल करता है, जिसमें वह याचिका में लगाए गए आरोपों का खंडन या स्वीकृति करता है।
  • चरण 4: सुलह/मध्यस्थता (Conciliation/Mediation)
    परिवार न्यायालय हमेशा पहले दोनों पक्षों के बीच सुलह कराने का प्रयास करता है। यदि सुलह की कोई संभावना होती है, तो मामला मध्यस्थता केंद्र में भेजा जा सकता है।
  • चरण 5: साक्ष्य (Evidence)
    यदि सुलह विफल हो जाती है, तो मामला साक्ष्य के लिए आगे बढ़ता है। दोनों पक्ष हलफनामे (Affidavits), गवाहों और दस्तावेजों के माध्यम से अपने दावों को साबित करते हैं। इसमें मुख्य-परीक्षा (Examination-in-chief) और प्रति-परीक्षा (Cross-examination) शामिल है।
  • चरण 6: अंतिम बहस (Final Arguments)
    साक्ष्य पूरा होने के बाद, दोनों पक्षों के वकील कानून और सबूतों के आधार पर अंतिम बहस करते हैं।
  • चरण 7: निर्णय और डिक्री (Judgment and Decree)
    अंतिम बहस सुनने के बाद, न्यायालय अपना निर्णय सुनाता है और एक डिक्री (आदेश) पारित करता है।
हिन्दू विवाह अधिनियम के तहत उपलब्ध कानूनी उपचार
  • शून्य विवाह की घोषणा (धारा 11): विवाह को कानूनी रूप से अमान्य घोषित करवाना।
  • विवाह का बातिलकरण (धारा 12): शून्यकरणीय विवाह को रद्द करवाना।
  • दाम्पत्य अधिकारों का पुनर्स्थापन (धारा 9): अलग रह रहे जीवनसाथी को वापस बुलाने के लिए।
  • न्यायिक पृथक्करण (धारा 10): कानूनी रूप से अलग रहने का अधिकार, बिना तलाक के।
  • विवाह-विच्छेद/तलाक (धारा 13): विवाह को कानूनी रूप से समाप्त करना।
  • पारस्परिक सहमति से तलाक (धारा 13B): जब दोनों पक्ष तलाक के लिए सहमत हों।
  • वादकालीन भरण-पोषण (धारा 24): केस चलने के दौरान खर्चा-पानी।
  • स्थायी भरण-पोषण (धारा 25): तलाक के बाद गुजारा भत्ता।
  • बच्चों की अभिरक्षा (धारा 26): बच्चों की कस्टडी के लिए।
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