त्रुटिपूर्ण संज्ञान की विधिक मीमांसा
धारा 190 CrPC एवं न्यायिक शक्तियों का विश्लेषण: उपचार एवं रणनीतियाँ
आपराधिक न्याय की प्रक्रिया में, 'संज्ञान' (Cognizance) वह प्रारंभिक, किन्तु निर्णायक बिंदु है जहाँ एक मजिस्ट्रेट अभियुक्त के विरुद्ध कार्यवाही प्रारम्भ करने हेतु मामले पर अपने न्यायिक विवेक का प्रथम प्रयोग करता है। यह अनुच्छेद २१ के अंतर्गत प्रदत्त दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार का एक महत्वपूर्ण प्रहरी है। यदि संज्ञान की यह प्रक्रिया ही त्रुटिपूर्ण या विधि-विरुद्ध हो, तो सम्पूर्ण अनुवर्ती कार्यवाही—समन, वारंट, और यहाँ तक कि विचारण भी—प्रारंभ से ही दूषित (vitiated ab initio) हो जाती है। यह आलेख त्रुटिपूर्ण संज्ञान के विभिन्न आधारों, उनके विधिक परिणामों और अभियुक्त के लिए उपलब्ध उपचारों का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है।
अध्याय I: 'संज्ञान' की अवधारणा एवं इसकी परिधि
धारा १९० CrPC के अंतर्गत एक मजिस्ट्रेट तीन प्रकार से किसी अपराध का संज्ञान ले सकता है: (क) एक परिवाद (Complaint) प्राप्त होने पर, (ख) एक पुलिस रिपोर्ट (Police Report/Chargesheet) पर, या (ग) पुलिस अधिकारी से भिन्न किसी व्यक्ति से प्राप्त सूचना पर या स्वयं की जानकारी पर।
"संज्ञान शब्द का अर्थ केवल 'जानकारी होना' नहीं है। न्यायिक अर्थ में, इसका तात्पर्य किसी अपराध के संबंध में कार्यवाही प्रारम्भ करने के इरादे से एक मजिस्ट्रेट द्वारा अपने न्यायिक विवेक का प्रयोग करना है... यह मात्र प्रक्रियात्मक कदम उठाने से भिन्न है।"
मजिस्ट्रेट को 'डाकघर' के रूप में कार्य नहीं करना है। उसे यह देखना होता है कि क्या प्रस्तुत सामग्री से अभियुक्त के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त आधार बनते हैं या नहीं। इसी विवेक के प्रयोग में त्रुटि होने पर संज्ञान 'त्रुटिपूर्ण' हो जाता है।
अध्याय II: त्रुटिपूर्ण संज्ञान के प्रमुख आधार
संज्ञान को विभिन्न आधारों पर त्रुटिपूर्ण माना जा सकता है, जो मोटे तौर पर क्षेत्राधिकार, कानूनी वर्जन और प्रक्रियात्मक अनियमितताओं में वर्गीकृत किए जा सकते हैं।
2.1 अधिकारिता का अभाव (Lack of Jurisdiction)
यह क्षेत्राधिकार विषय-वस्तु (subject-matter) या स्थानीय (territorial) दोनों से संबंधित हो सकता है। धारा 461 CrPC उन अनियमितताओं को सूचीबद्ध करती है जो कार्यवाही को दूषित कर देती हैं, और इसमें बिना अधिकारिता के अपराध का संज्ञान लेना प्रमुख है। यदि कोई मजिस्ट्रेट ऐसे अपराध का संज्ञान लेता है जो अनन्य रूप से सत्र न्यायालय (Court of Session) द्वारा विचारणीय है, तो ऐसा संज्ञान प्रारंभ से ही अमान्य है।
2.2 विधि द्वारा वर्जन (Bar of Law)
(क) परिसीमा (Limitation) - धारा 468 CrPC
संहिता कुछ अपराधों का संज्ञान लेने के लिए एक समय-सीमा निर्धारित करती है। यदि आरोप-पत्र उस समय-सीमा के बाद दाखिल किया जाता है, तो मजिस्ट्रेट उसका संज्ञान नहीं ले सकता, जब तक कि वह धारा 473 के तहत विलंब को क्षमा न कर दे।
"संज्ञान लेने की तिथि को परिसीमा की गणना के लिए निर्णायक माना जाएगा, न कि परिवाद या FIR दर्ज करने की तिथि को।"
(ख) पूर्व मंजूरी का अभाव (Lack of Prior Sanction) - धारा 197 CrPC
लोक सेवकों (Public Servants) को उनके आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन में किए गए कार्यों के लिए द्वेषपूर्ण अभियोजन से बचाने हेतु, धारा 197 के तहत अभियोजन के लिए सरकार की पूर्व मंजूरी आवश्यक है। यदि यह मंजूरी नहीं ली गई है, तो संज्ञान लेना अवैध है।
विधिक एवं रणनीतिक विश्लेषण
अनिल कुमार बनाम एम. के. अयप्पा, (2013) 10 SCC 705 के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने स्थापित किया कि यदि कोई मजिस्ट्रेट धारा 156(3) के तहत जांच का आदेश देता है, और जांच के बाद लोक सेवक के विरुद्ध आरोप-पत्र दाखिल होता है, तो भी संज्ञान लेने से पूर्व मंजूरी आवश्यक है। रणनीतिक महत्व: एक लोक सेवक के लिए यह एक महत्वपूर्ण बचाव है। प्रतिरक्षा अधिवक्ता को संज्ञान के स्तर पर ही मंजूरी के अभाव का प्रश्न उठाना चाहिए।
2.3 प्रक्रियात्मक त्रुटियाँ एवं न्यायिक विवेक का दुरुपयोग
यह सबसे आम क्षेत्र है जहाँ त्रुटिपूर्ण संज्ञान की स्थिति बनती है।
(क) क्लोजर रिपोर्ट के बावजूद संज्ञान लेना
जब पुलिस अंतिम रिपोर्ट (Closure Report) दाखिल करती है, तो मजिस्ट्रेट के पास तीन विकल्प होते हैं:
- रिपोर्ट स्वीकार करना।
- रिपोर्ट से असहमत होकर, प्रस्तुत सामग्री के आधार पर सीधे संज्ञान लेना।
धारा 173(8)के तहत आगे की जांच (Further Investigation) का आदेश देना।
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यदि मजिस्ट्रेट क्लोजर रिपोर्ट को अस्वीकार कर संज्ञान लेता है, तो उसे अपने आदेश में इसके कारण दर्ज करने होंगे और उसे परिवादी (Complainant) को सुनवाई का अवसर देना होगा।
"यदि मजिस्ट्रेट क्लोजर रिपोर्ट से असहमत होकर संज्ञान लेने का निर्णय करता है, तो उसे परिवादी की प्रोटेस्ट पिटीशन पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं है। वह सीधे पुलिस द्वारा एकत्र की गई सामग्री के आधार पर संज्ञान ले सकता है।"
(ख) धारा 156(3) के आदेश के पूर्व शर्तों का अभाव
धारा 156(3) के तहत FIR दर्ज करने का आदेश देने से पूर्व, मजिस्ट्रेट को विवेक का प्रयोग करना होता है।
विधिक एवं रणनीतिक विश्लेषण
प्रियंका श्रीवास्तव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, (2015) 6 SCC 287 में, उच्चतम न्यायालय ने धारा 156(3) के दुरुपयोग को रोकने के लिए यह अनिवार्य कर दिया कि इस धारा के तहत आवेदन एक शपथ-पत्र (Affidavit) द्वारा समर्थित होना चाहिए। आवेदक को यह भी दर्शाना होगा कि उसने पहले धारा 154(1) एवं 154(3) के तहत वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों से संपर्क किया था। इन शर्तों के बिना दिया गया जांच का आदेश और उसके परिणाम में लिया गया संज्ञान अवैध हो सकता है।
अध्याय III: त्रुटिपूर्ण संज्ञान के विरुद्ध उपचार (Remedies)
एक अभियुक्त जिसके विरुद्ध गलत तरीके से संज्ञान लिया गया है, उसके पास शक्तिशाली उपचार उपलब्ध हैं:
3.1 उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्ति: धारा 482 CrPC
यह सबसे प्रभावी उपचार है। उच्च न्यायालय को यह अंतर्निहित शक्ति प्राप्त है कि वह न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने या न्याय के सिरों को सुरक्षित करने के लिए किसी भी आदेश, जिसमें संज्ञान का आदेश भी शामिल है, को रद्द (quash) कर दे।
"जहाँ आपराधिक कार्यवाही स्पष्ट रूप से दुर्भावना से या किसी छिपे हुए उद्देश्य की पूर्ति के लिए संस्थित की गई हो, उसे रद्द कर दिया जाना चाहिए।"
भजन लाल में निर्धारित सात श्रेणियाँ आज भी धारा 482 के तहत याचिकाओं का आधार बनती हैं। त्रुटिपूर्ण संज्ञान अक्सर इनमें से एक या अधिक श्रेणियों में आता है।
3.2 पुनरीक्षण (Revision): धारा 397 CrPC
एक अभियुक्त सत्र न्यायालय या उच्च न्यायालय के समक्ष संज्ञान के आदेश के विरुद्ध एक पुनरीक्षण याचिका भी दायर कर सकता है, जिसमें आदेश की वैधता, औचित्य और शुद्धता को चुनौती दी जाती है। हालांकि, धारा 482 की शक्तियाँ पुनरीक्षण की शक्तियों से अधिक व्यापक हैं।
निष्कर्ष: मजिस्ट्रेट की भूमिका एवं न्याय का संतुलन
संज्ञान लेना एक गंभीर न्यायिक कार्य है जो किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता को सीधे प्रभावित करता है। यह एक यांत्रिक प्रक्रिया नहीं हो सकती। मजिस्ट्रेट को एक सजग प्रहरी के रूप में कार्य करना चाहिए, जो यह सुनिश्चित करे कि केवल उन्हीं मामलों में कार्यवाही आगे बढ़े जिनमें प्रथम दृष्टया पर्याप्त सामग्री मौजूद है और जो किसी कानूनी या प्रक्रियात्मक बाधा से ग्रस्त नहीं हैं। त्रुटिपूर्ण संज्ञान की स्थिति में, धारा 482 CrPC एक सुरक्षा वाल्व के रूप में कार्य करती है, जो न्याय के दुरुपयोग को रोकती है और यह सुनिश्चित करती है कि कानून की प्रक्रिया स्वयं उत्पीड़न का एक साधन न बन जाए।